2010–2019
अतंत: --- इसलिये तुम परिपूर्ण बनो
अक्टूबर 2017


अतंत:—इसलिये तुम परिपूर्ण बनो

यदि हम दृढ़ रहते हैं, तो कहीं अनंत काल में हमारा सुधार समाप्त और पूरा हो जाएगा ।

धर्मशास्त्र हमें आशीष और उत्साह देने के लिये लिखे गए थे, और वे निश्चितरूप से ऐसा करते हैं । प्रत्येक अध्याय और आयत के लिये हम स्वर्ग को धन्यवाद देते हैं । लेकिन क्या आपने ध्यान दिया है कि बार बार एक वाक्य प्रकट होकर हमें याद दिलाता है कि हमारे में कुछ कमी है ? उदाहरण के लिये, पहाड़ पर उपदेश शांत, कोमल उपदेशों से आरंभ होता है, लेकिन उसके बाद की आयत में, हमें कहा जाता है--अन्य बातों के साथ---न केवल हत्या न करना बल्कि क्रोध भी न करना । हमें न केवल व्यभिचार न करने के लिये कहा जाता है बल्कि अशुद्ध विचारों को भी नहीं लाना चाहिए । उनके लिये जो कुरता मांगते, हमें अपना कोट भी दे देना चाहिए । हमें अपने शत्रुओं से प्रेम करना है, उन्हें भी जो हमें श्राप देते हैं, और उनके साथ भलाई करनी है जो हम से नफरत करते हैं ।1

यहां तक पढ़ने के बाद हमें पक्का पता है कि हमें सुसमाचार रिपोर्ट कार्ड में अच्छे नंबर नहीं मिलेंगे, निश्चित रूप से हम दी गई अंतिम आज्ञा का पालन करने के लायक नहीं हैं: “इसलिये चाहिए कि तुम भी परिपूर्ण बनो, जैसा तुम्हारा स्वर्गीय पिता परिपूर्ण है ।”2 इस अंतिम आज्ञा से, हम हार मान जाएंगे और इस आज्ञा का पालन करने का प्रयास भी नहीं करेंगे । इस तरह के सिलेस्टियल लक्ष्य हमारी पहुंच से परे लगते हैं । फिर भी प्रभु हमें ऐसी कोई आज्ञा कभी नहीं देगा जिसे वह जानता है कि हम पूरा नहीं कर सकते । आओ हम देखें यह व्याकुलता हमें कहां ले जाती है ।

गिरजे में यहां-वहां मैंने बहुतों को कहते सुना है जो इस विषय पर संघर्ष करते हैं: “मैं इतना अच्छा नहीं हूं ।” “मैं बहुत अपरिपूर्ण हूं ।” मैं कभी योग्य नहीं हो पाऊंगा ।“ इसे मैं किशोरों से सुनता हूं । मैं यह प्रचारकों से सुनता हूं । मैं इसे नये परिवर्तित से सुनता हूं । मैं इसे जीवन-भर से सदस्यों से सुनता हूं । जैसा एक विचारशील अंतिम-दिनों की बहन दारल जैक्सन ने कहा था, शैतान किसी तरह अनुबंधों और आज्ञाओं को इस तरह बना दिया है मानो यह श्राप और सजा हों । कुछ के लिये उसने सुसमाचार के आदर्शों और प्रेरणाओं को स्वयं से घृणा-करने और दुखी-बनाने वालों में बदल दिया है ।3

मैं अब जो भी कहता हूं, किसी भी रूप में परमेश्वर की हमें दी गई किसी भी आज्ञा को अस्वीकार करना या कम करना नहीं है । मैं उसकी परिपूर्णता में विश्वास करता हूं, और मैं जानता हूं हम उसके आत्मिक बेटे और बेटियां हैं उसके समान बनने की हमारे पास दिव्य योग्यता है । लेकिन मैं यह भी जानता हूं कि परमेश्वर के बच्चों के रूप में, हमें स्वयं को छोटा नहीं समझना और स्वयं का तिरस्कार नहीं करना चाहिए, ऐसा नहीं कि हम स्वयं को दंड देने लगें । नहीं ! पश्चाताप करने की इच्छा से और अपने हृदयों में धार्मिकता को बढ़ाने की इच्छा के साथ, मैं आशा करूंगा हम व्यक्तिगत सुधार को इस प्रकार जारी रख सकें कि इसके नकारात्मक शारीरिक या भावनात्मक परिणाम न हों, हम में उदासीनता न हो और हमारे आत्म-सम्मान को ठेस न पहूंचे । प्रभु प्राथमिक के बच्चे या किसी अन्य से भी ऐसा नहीं चाहता है जो निष्ठा से गाता है, “I’m trying to be like Jesus.” 4

इस विषय के संदर्भ में, मैं हम सबों को याद दिलाता हूं कि हम एक पतित संसार में रहते हैं और अभी हम पतित लोग हैं । हम टीलेस्टियल राज्य में हैं, जो अक्षर से लिखा जाता है, से नहीं । जैसा अध्यक्ष रसल एम. नेलसन ने सीखाया है, यहां नश्वरता में परिपूर्णता अभी भी “अपूर्ण” है । 5

इसलिये मैं विश्वास करता हूं कि यीशु का इस विषय पर अपने उपदेश का इरादा नश्वरता में हमारी कमियों के लिये हमें प्रताड़ित करना नहीं था । नहीं, मैं विश्वास करता हूं उसका इरादा यह सम्मान दिखाना था कि परमेश्वर अनंत पिता कौन और क्या है और हम अनंतता में उसके साथ क्या प्राप्त कर सकते हैं । किसी भी मामले में, कमियों के होते हुए, मैं यह जानते हुए आभारी हूं कि कम से कम से परमेश्वर परिपूर्ण है---कम से कम वह, उदाहरण के लिये, अपने शत्रु से प्रेम करने के योग्य है । मैं ऐसा कहता हूं क्योंकि बहुत बार, हमारे भीतर “प्राकृतिक मनुष्य”6 होने के कारण, मैं और आप कई बार वह शत्रु हैं । मैं बहुत आभारी हूं कि कम से कम परमेश्वर उन्हें आशीष दे सकता है जो उससे सताते हैं क्योंकि, बिना ऐसा करने को चाहे या सोचे, हम सब कई बार उसे सताते हैं । मैं आभारी हूं कि परमेश्वर दयालु और शांति कायम करने वाला है क्योंकि मुझे दया की जरूरत है और संसार को शांति की जरूरत है । अवश्य ही, जो सब हम पिता के गुणों के विषय में कहते हैं हम उसके एकलौते पुत्र के संबंध में भी कहते हैं, जो उसी परिपूर्णता में जीया और मरा था ।

मैं यह कहने में शीघ्रता करना चाहता हूं कि अपनी विफलताओं पर ध्यान देने के बजाए पिता और पुत्र की उपलब्धियों पर ध्यान केंद्रित करने से हमें जीवनों को अनुशासनहीन करने या अपने आदर्श को रत्ती-भर भी कम करने का औचित्य नहीं मिल जाता । नहीं, आरंभ से ही सुसमाचार को “संतों को परिपूर्ण करने के लिये सीखाया और हमारे समय में पुनास्थापित किया गया है, ... जबतक हम ... मसीह के समान परिपूर्णता में नहीं बढ़ जाते । 7 मैं बस यह सुझाव दे रहा हूं कि धर्मशास्त्र या आज्ञा का एक उद्देश्य हमें स्मरण कराने के लिये हो सकता है कि “मसीह की परिपूर्णता का कद वास्तव में बहुत महिमापूर्ण है, और हमें अधिक प्रेम और उसकी प्रशंसा के लिये और उसके समान बनने की अधिक इच्छा के लिये प्रेरित करे ।” 8 असल में, प्रभु यीशु मसीह में बड़ा हुआ विश्वास इस जीवन और अनंतता में परिपूर्णता में किसी भी बड़े सुधार के लिये मुख्य है, जिसके लिये वह पहाड़ पर उपदेश दे रहा था ।

“हां, मसीह के पास आओ, और उसमें परिपूर्ण बनो ...  ,” मोरोनी याचना करता है । “परमेश्वर से अपनी योग्यता, बुद्धि, और बल से प्रेम करोगे, तब उसके अनुग्रह से तुम मसीह में परिपूर्ण हो सको ।9  यही हमारी एकमात्र आशा है ! इस प्रकार, परमेश्वरत्व के उपहार हमें न केवल दुख और पाप और मृत्यु से उद्धार प्रदान करते हैं बल्कि हमारी स्वयं की निरंतर आत्म-आलोचना से भी उद्धार दिलाते हैं ।

इसे भिन्न तरीके से कहने के लिये मैं उद्धारकर्ता के दृष्टांतों में से एक का उपयोग करूंगा । एक नौकर अपने राजा का 10,000 तोड़ों का कर्जदार था । धैर्य और दया के लिये नौकर की याचना सुनने पर, “उस सेवक का स्वामी दया से भर गया, और कर्ज को माफ कर दिया ।” लेकिन बाद में वही सेवक अपने साथी नौकर को क्षमा नहीं करता है जिसने उसे 100 पेंस देने थे । यह सुनने पर, राजा ने उस पर खेद प्रकट करते हुए उससे कहा, जिसे उसने क्षमा किया था, “जैसा मैंने तुझ पर दया की, वैसे ही क्या तुझे भी अपने साथी नौकर पर दया नहीं करनी चाहिए थी ?” 10

यहां बताई गई धन के मूल्यों पर विद्वानों के बीच मतभेद है, लेकिन हिसाब को सरल करने के लिये, यदि कम धन, यानि क्षमा नहीं किए 100 पेंस, मान लो, वर्तमान समय में 100 रूपये के बराबर है, तो 10000 तोड़े का कर्ज जिसे सरलता से क्षमा कर दिया गया था 1 करोड़ रूपये --- या अधिक था !

एक व्यक्तिगत कर्ज के रूप में, यह संख्या बहुत अधिक है; हमारे समझ से बिलकुल परे । अच्छा, इस दृष्टांत के उद्देश्यों के लिये, यह ऐसा ही होना चाहिए कि यह समझ से परे हो; यह ऐसा ही होना चाहिए कि यह हमारी योग्यता से बाहर हो, हमारे भुगतान करने की क्षमता से अधिक होना तो बहुत दूर की बात है । ऐसा इसलिये क्योंकि यह कहानी नये नियम के समय के दो नौकरों के बीच बहस का नहीं है । यह कहानी हमारे विषय में है, पतित मनुष्य परिवार, नश्वर कर्जदार, अपराधी, और कैदी । हम में से प्रत्येक कर्जदार है, क्योंकि पौलुस हमें स्मरण कराता है “सबने पाप किया है, और परमेश्वर की महिमा के रहित हैं ।” 10 हम सबों के लिये फैसला कारावास था, और हम सब वहीं रहते यदि हमारे राजा का अनुग्रह नहीं होता जिसने हम सबों को स्वतंत्र किया क्योंकि वह हमसे प्रेम करता है और “हम प्रति करूणा से भर गया था ।” 11

यहां यीशु समझ से परे माप का उपयोग करता है क्योंकि उसका अपरिमित प्रायश्चित एक अनमोल उपहार है । मुझे लगता है, यह यीशु के परिपूर्ण होने के आदेश के पीछे का कम से कम एक भाग है । हो सकता है हम अभी उस 10000 तोड़े की परिपूर्णता को दिखाने के योग्य हों जो पिता और पुत्र ने हासिल की है, लेकिन वे अधिक नहीं चाह रहे यदि वे चाहते हैं हम से छोटी-छोटी बातों में हमें परमेश्वर के समान हों, जो हम बोलते और करते, क्षमा और प्रेम, पश्चाताप और सुधार कम से कम 100 पेंस के स्तर तक परिपूर्ण हों, जोकि स्पष्ट रूप से हमारी योग्यता के अनुरूप है ।

भाइयों और बहनों, सिवाय यीशु मसीह के, पृथ्वी की हमारी इस यात्रा में जो हम जी रहें हैं किसी का भी जीवन निष्कलंक नहीं रहा है, इसलिये मैं आशा करता हूं नश्वरता में हम निरंतर सुधार करने का प्रयास करेंगे लेकिन उससे प्रभावित नहीं होंगे जिसे वैज्ञानिक “हानिकारक परिपूर्णता” कहते हैं । 12 हमें बाद की अपेक्षाओं से अपने-आप को, दूसरों को बचना चाहिए और इसमें मैं उन लोगों को भी शामिल कर सकता हूं जिन्हें इस गिरजे में सेवा करने के लिये नियुक्त किया जाता है --अंतिम-दिनों के संतों के लिये इसका अर्थ सभी लोग है, क्योंकि हमें कहीं न कहीं सेवा करने के लिये नियुक्त किया जाता है ।

इस संबंध में, लियो टॉल्सटॉय ने एक याजक पर लेख लिखा था, जिसकी आलोचना उसके गिरजे के एक सदस्य ने की थी कि वह उतनी सख्ती से अपना जीवन नहीं जी रहा था जितना चाहिए था, समीक्षक ने अंत में लिखा था कि जो सिद्धांत इस गलती करने वाले याजक ने सीखाया था वह भी अवश्य ही गलत होगा ।

उस आलोचना के जवाब में, याजक ने लिखा: “मेरे अब के जीवन को देखो और मेरे पिछले जीवन से इसकी तुलना करें । आप देखेंगे कि मैं उस सच्चाई को जीने की कोशिश कर रहा हूं जिसकी मैं घोषणा करता हूं ।” उन उच्च विचारों को जीने में वह अयोग्य था जो उसने सीखाए थे, याजक ने स्वीकार किया कि वह असफल रहा है । लेकिन वह रोता है:

“मुझ पर हमला करो,[यदि आप चाहते हो] मैं स्वयं ऐसा करता हूं,” वह आगे कहता है, “लेकिन जिस मार्ग पर मैं चलता उस पर हमला मत करो । ... यदि मैं घर जाने का मार्ग जानता हूं लेकिन मदिरा पीकर चल रहा हूं ... तो क्या यह सही तरीके से कम है क्योंकि मैं इधर-उधर लड़खड़ा रहा हूं ?

... मजाक उड़ाते हुए मत चिल्लाओ, ‘अरे उसे देखो ! ... वह कीचड़ में गिर रहा है !’ नहीं, बूरी दृष्टि मत डालो, बल्कि परमेश्वर के मार्ग पर वापस लौटने में मेरी सहायता करो ।” 13

भाइयों और बहनों, हम में से प्रत्येक अधिक मसीह समान जीवन को चाहता है जितना हम अक्सर जीने में सफल हो सकते हैं । यदि हम ईमानदारी से स्वीकार करें और सुधरने का प्रयास कर रहे हैं, तो हम पाखंडी नहीं हैं; हम इंसान हैं । मैं आशा करता हूं कि हम अपनी नश्वर गलतियों और हमारे आस-पास के सबसे अच्छे पुरुष और महिला की अपरिहार्य कमियों का इंकार करेंगे, जो हमें सुसमाचार की सच्चाई या हमारे भविष्य की आशा या हमारी सच्ची भक्ति की संभावना के बारे में सनक बनाते हैं। यदि हम दृढ़ रहते हैं, तो कहीं अनंत काल में हमारा सुधार समाप्त और पूरा हो जाएगा - जिसका अर्थ नये नियम में परिपूर्णता का अर्थ है । 14

मैं गवाही देता हूं कि महान नियति, जो प्रभु यीशु मसीह के प्रायश्चित द्वारा हमें उपलब्ध कराई गई है, जो स्वयं “अनुग्रह से अनुग्रह”15 में जारी रहा था, जब तक उसने अपनी अमरत्व 16 में परिपूर्णता को प्राप्त नहीं कर लिया था ।16 उसने सिलेस्टियल महिमा की परिपूर्णता को प्राप्त किया था ।17 मैं गवाही देता हूं कि इस क्षण और प्रत्येक क्षण, कील-के-घाव वाले हाथों से, वह हमें वही अनुग्रह दे रहा, हमें थामे हुए और आशा देते हुए जब तक हम सुरक्षित अपने स्वर्गीय माता-पिता के घर नहीं पहुंच जाते । उस परिपूर्ण क्षण के लिये, मैं निंरतर प्रयास करता हूं, चाहे कितने भी अनाड़ीपन से । ऐसे परिपूर्ण उपहार के लिये मैं निरंतर धन्यवाद देता हैं, चाहे यह कितना ही कम क्यों न हो । मैं ऐसा उस नाम में करता हूं जो स्वयं में परिपूर्ण है । जो कभी अनाड़ी या अपर्याप्त नहीं रहा है बल्कि वह हम सब से प्रेम करता है हम चाहे जैसे भी हों, अर्थात प्रभु यीशु मसीह के नाम में, आमीन ।